Musafir Shayari in Hindi | मुसाफिर शायरी | Two Line Musafir Shayari in Hindi | अजनबी मुसाफिर शायरी | Musafir Shayari Rekhta Hindi | हिंदी में मुसाफिर शायरी | भटका हुआ मुसाफिर शायरी
Musafir Shayari in Hindi
मुझे पढने की ज़द्दोज़हद न कर ए मुसाफिर
न कुरेद मेरे सोये वज़ूद को यूँ बेवजह।
जो तेरे लिए किस्सा है वो मेरी कहानी है
जो तू पढकर गुज़रेगा वो मुझे निभानी है।।
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कस्ती के मुसाफिर ने समुंदर नहीं देखा,
आँखों में रहे पर दिल में उतर कर नहीं देखा,
पत्थर समाज द हमें चाहने वाले,
पर हम तो मौम थे, किसी ने छू कर ही नहीं देखा…
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होगा मुसाफिर जो जहां में आएगा सफर का
जहां मुक़ाम छोड जाएगा… इस सफर में होते हैं
साथ मुसाफिर बहुत कोई किसी के साथ ना
आया ना जाएगा….
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मुसाफिर की नजरें बुलंदी पे थी मगर रास्ते
सब धलानों के थे हम को मालुम है जन्नंती
की हकीकत लेकिन; दिल को खुश रखने को
ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है!
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ये कैसी मजबूरी है मुसाफिर मुल्की है
मुझे ना दिन को आराम है, और ना रात को चैन
अपनों से और दोस्तों से दूर
रह रहे हैं हम एक उदासी सी जिंदगी है।
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बदलते हैं जो मुसाफिर जिंदगी के हर वक्त,
उनको कोई ईमान-धर्म नहीं होता,
लगते हैं जो चेहरे मासूम,
वो कभी किसी का सनम नहीं होता।
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असीं मुसाफिर दो पल दे , पानी वांग वह जाना
असीं वांग फूला पतझड़ विच झड़ जाना
की होया यह तंग करदे आ तेनु
इक दिन तेनु बिन दस्स्याँ ही तुर जाना.
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हसना हमारा किसी को गवारा नहीं होता,
हर मुसाफिर जिंदगी का सहारा नहीं होता,
मिलते हैं बहुत लोग है तन्हा जिंदगी में,
पर हर दोस्त तुमसे प्यारा नहीं होता…
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उसकी बात की कशिश में उलझ गये हैं…
क्या सुलझे हैं जरा सा और बिखर गये हैं…
आँखों से कह जाता है वो कई किस्से…
क्या इश्क़ है जरा सा और महक गये हैं…
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वो अपने आप से इश्क़ कराने में मशहूर है,
कि. वो अपने आप से इश्क़ कराने में मशहूर है,
और हमे उनसे इश्क़ हो गया क्या इसमें भी
हमारा कसूर है।
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हम तो ख्वाबो की दुनिया में बस खोते गये,
होश तो था फिर भी मदहोश होते गये,
उस अजनबी चेहरे में क्या जादू था,
न जाने क्यों हम उसके होते गये..!!
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बदलते हैं जो मुसाफिर जिंदगी के हर वक्त,
उनको कोई ईमान नहीं होता,
लगते हैं जो चेहरे मासूम,
वो कभी किसी का सनम नहीं होता।
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बस इस वक्त से पाबंध थे हम ये दोस्त
जूनून-ए-इश्क तो हम भी कर सकते थे बन के
रह गए एक मुसाफिर इन रहूं पे, रांझा,
मिर्जा हम भी बन सकते थे.
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मुसाफिर हु मै , बस चलना हू जनता,
कभी उस शहर, कभी उस शहर,
बस मंजिल के निशान भापता !
कही खुदसे बाते करता,
कभी ओरो को देखता सोचा,
जो रास्ते में मिलते हैं, उनसे मेरा क्या वस्ता!
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वो अपने आप से इश्क़ कराने में मशहूर है,
कि. वो अपने आप से इश्क़ कराने में मशहूर है,
और हमे उनसे इश्क़ हो गया क्या इसमें भी
हमारा कसूर है।
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जिद्द थी मेरी आगे बढ़ते रहने की
चाहत थी सिर्फ मुझे सफर की
कोई उम्मीद ले गया मुझसे
तो कोई दिल के टुकड़े कर गया मेरे
ये दुनिया वैसे मेरे कुछ काम की नहीं थी
मैंने हर आने जाने वाले से
एक नई दुनिया
बसाने के बारे में बात की.
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मुसाफिर मंजिल से करीब नहीं तो क्या,
किसी हमसफ़र की उम्मीद तो है..
आपको नहीं पसंद हमारा कलाम तो क्या,
जमाना आपसे तो नहीं है.
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तुम मुझसे मेरा क्या छीन पाओगे
खाली हाथ मै लौट जाता हूँ
जो भी मिला सब कुछ छोड़ जाता हूँ
ये दुनिया मेरे किस काम की
बस टहलने जरा सा यहाँ मै आता हूँ.
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मर मर के मुसाफिर ने बसाया है तुझे रुख
सबसे फेर के मुह देखा है तुझको तुझसे
लिपट कर ना सू ए कबरा जिंदगी देके
मैंने पाया है तुझे।
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